Monday, May 29, 2023
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सन् बाईस ने बहुत बिगाड़ा!

हरिशंकर व्यास
सन् बाईस पृथ्वी को झुलसा रहा है। पिघला रहा है। एक वजह जलवायु परिवर्तन है तो दूसरी वजह विश्व राजनीति का सूखापन है। वह सूखापन, जिससे वे तमाम मानवीय सरोकार खत्म हैं, जिनके लिए विश्व व्यवस्था है। वैश्विक एजेसियां हैं और आर्थिक-राजनीतिक समीकरण हैं। दक्षिण एशिया पर ही गौर करें। सोचें, मॉनसून शुरू हुआ नहीं और असम व बांग्लादेश पानी में डूबे हुए हैं। बांग्लादेश को लेकर वैश्विक सुर्खियां हैं। उधर श्रीलंका आर्थिक दिवालियेपन से सुर्खियों में हैं। पिछले सप्ताह से भूकंप के कारण अफगानिस्तान भी खबरों में हैं। लेकिन दुनिया का रवैया देखी-अनदेखी का! तालिबानी सरकार ने दुनिया से मदद की अपील की लेकिन इस्लामी देश और चीन-रूस-पाकिस्तान का त्रिगुट भी मदद के लिए दौड़ता हुआ नहीं। जाहिर है दुनिया यूक्रेन-रूस की लड़ाई से ठहरी और ठिठकी है।

कोई माने या न माने लेकिन इस एक क्षेत्रीय लड़ाई ने जिस तरह पृथ्वी के आठ अरब लोगों का जीना मुश्किल बनाया है वह दूसरे महायुद्ध के बाद का सबसे बड़ा संकट है। ईंधन (पेट्रोलियम पदार्थों) और अनाज की कमी और महंगाई ने सभी देशों की आर्थिकी को गड़बड़ा दिया है। मुद्रास्फीति, मंदी, पूंजी-निवेश और करेंसिंयों व कारोबार में आंशकाओं का ढेर बना है।
जर्मनी के बावेरिया के एल्माउ पैलेस में जी-7 देशों (अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, जापान, इटली और कनाडा) के नेताओं की शिखर बैठक हो रही है। तय मानें यह बैठक ऐतिहासिक है। जी-7 और उसके बाद नाटो देशों की बैठक में तय होने वाला है कि कैसे रूस-चीन की साझेदारी से निपटा जाए। यूरोपीय संघ में यूक्रेन की सदस्यता पर हरी झंडी या जी-7 नेताओं के साथ जेलेंस्की की बातचीत आदि का अपना अर्थ है मगर असली विचारणीय मुद्दा अब यह है कि पाबंदियों के बावजूद यदि राष्ट्रपति पुतिन की सेहत पर असर नहीं है तो वजह उनके पीछे चीन का होना है।

रूस और चीन दोनों को अहसास है कि जी-7 में उनके खिलाफ नई रीति-नीति बनेगी। 29-30 जून की नाटो बैठक में ऑस्ट्रेलिया, जापान, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया (भारत आमंत्रित नहीं) को विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया है तो जाहिर है चीन को लेकर नाटो का हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी फोकस बनता हुआ है। इसलिए विश्व राजनीति में पश्चिम बनाम रूस-चीन के शक्ति परीक्षण की गोलबंदी सन् बाईस का बड़ा मामला है। जी-7 में  रूस पर नई पाबंदियां लगने वाली हैं। सर्दियों से पहले यूरोपीय देशों की तेल-गैस में रूस पर निर्भरता खत्म कराने के नए फैसले होंगे। यूक्रेन को मदद और हथियारों की नई खेप का भी फैसला होगा। देखने वाली बात है कि यूक्रेन के रूसी आबादी वाले पूर्वी प्रांत पर कब्जे के बाद यदि रूस की गोलाबारी राजधानी कीव पर हुई तो उसके जवाब में यूक्रेन को क्या कहा जाएगा? क्या उसे लंबी दूरी की वे मिसाइलें, लड़ाकू विमान मिलेंगे, जिससे वह रूस के भीतर मिसाइल दाग कर जवाब दे सके?

पूर्वी इलाके पर कब्जे के बाद रूस पीछे नहीं हटने वाला है। राष्ट्रपति पुतिन और उनके पीछे राष्ट्रपति शी जिनफिंग की वैश्विक दादागिरी के लिए जरूरी है कि या तो यूक्रेन का समर्पण हो या यूरोपीय संघ-अमेरिका थक कर समझौते-सुलह की पहल करें। वे पाबंदियों में ढीले पड़ें। हां, जी-7 की बैठक से ठीक पहले रूस ने यूक्रेन की राजधानी कीव पर मिसाइल हमला करके जी-7  के नेताओं को मैसेज दिया है कि उसे परवाह नहीं है। तीन दिन पहले की ब्रिक्स बैठक में भी पुतिन और शी जीनफिंग ने प्रतिबंधों को लेकर जैसे तेवर दिखाए उसका सीधा अर्थ है कि सैनिक और आर्थिक दोनों पहलुओं में पुतिन-शी जिनफिंग आत्मविश्वास में हैं। रूस-चीन अपनी जीत होती मान रहे हैं। अपनी धुरी पर दुनिया के बाकी देशों में रूतबा बनने के विश्वास में हैं।

जाहिर है यूक्रेन लड़ाई अब न केवल दोनों खेमों में शक्ति परीक्षण है, बल्कि जो जीता वह विश्व राजनीति का सिकंदर। वह सिकंदर चीन और उसके राष्ट्रपति शी होंगे न कि राष्ट्रपति पुतिन। यूक्रेन के युद्ध से पहले रूस एटमी हथियारों की ताकत पर दुनिया की नंबर दो महाशक्ति था। अब वह चीन का पिछलग्गू है। पुतिन हर तरह से राष्ट्रपति शी जिनफिंग के अहसानमंद हैं।

इसलिए जी-7 और नाटों के फोकस में चीन का होना स्वाभाविक है। सवाल है कि लीडरशीप के संकट से जूझ रही पश्चिमी जमात क्या रूस और चीन से एक साथ पंगा ले सकती है? दूसरा विकल्प नहीं है। राष्ट्रपति शी और चीन के थिंक टैक मान रहे हैं कि पश्चिमी देशों के भीतर सामाजिक-राजनीतिक झगड़े हैं। थैचर, रोनाल्ड रीगन, मर्केल जैसे नेता नहीं हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन में भी दमखम नहीं है। अपनी जगह ऐसा सोचना गलत नहीं है। लेकिन पिछले पांच महीने (डोनाल्ड ट्रंप के वक्त में भी) का कमाल है जो यूरोपीय देशों और अमेरिका में रूस और चीन दोनों के खिलाफ जनमानस बुरी तरह एकजुट हुआ है। यूरोप में जो हुआ है वह स्वयंस्फूर्त है। अब किसी राष्ट्रपति की जरूरत नहीं है, बल्कि नाटो और यूरोपीय संघ के महासचिव और अध्यक्ष का ही नेतृत्व लोगों में हिट है।

संभव है यह सब इस आकलन से हो कि इतनी पाबंदियों के बावजूद यदि पुतिन थम नहीं रहे हैं तो वजह चीन है। रूस और उसके राष्ट्रपति पुतिन ने यूरोपीय देशों में जहां शत्रुता गहरे पैठाई है वहीं लड़ाई के लंबे खींचते जाने से अमेरिका-यूरोप-जापान-दक्षिण कोरिया-ऑस्ट्रेलिया आदि के पश्चिमी समीकरण में यह खुन्नस बनी है कि असली शैतान चीन है।
लंदन की प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ में जनवरी से ले कर अब तक की कवर स्टोरी में रूस-यूक्रेन और पुतिन व रूस को लेकर दस कवर बने हैं तो दूसरे नंबर पर चीन, राष्ट्रपति शी जिनफिंग और नई विश्व व्यवस्था के कयास के कवर हैं। फिर यूक्रेन-रूस लड़ाई के परिणामों पर विश्लेषण के कवर। इनसे मालूम होता है कि सन् बाईस की विश्व राजनीति क्या है? तय मानें आगे भी पुतिन-शी जिनफिंग की जुगलजोड़ी बनाम पश्चिमी देशों का शक्ति परीक्षण हावी रहेगा। ऐसे में जलवायु परिवर्तन, विश्व आर्थिकी सहित वे तमाम मसले हाशिए में रहेंगे, जिन पर यूक्रेन युद्ध से पहले विश्व समुदाय सोचता-विचारता और फैसले करता हुआ था।

सोचें, जलवायु परिवर्तन को लेकर सर्वाधिक गंभीर यूरोपीय समाज अब वापिस कोयले के बिजलीघर शुरू कर रहा है। ईंधन और अनाज के संकट से कई देशों की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। ईंधन, अनाज और खाने-पीने के सामानों की महंगाई में श्रीलंका, इक्वाडोर, मिस्र, तुर्की, अरब-अफ्रीकी देशों में अशांति-राजनीतिक बवाल बनते हुए हैं। यदि अमेरिका सचमुच मंदी में फंसा और चीन, ब्राजील, रूस, दक्षिण अफ्रीका, भारत के शेयर-पूंजी बाजार से पश्चिमी विदेशी निवेशकों ने पैसा निकालना जारी रखा तो अगले साल तक चंद देशों को छोड़ कर अधिकांश देशों की आर्थिकी से निवेशकों का विश्वास टूट जाना है।

ऐसा आर्थिक सिनेरियो क्या फिलहाल कुबेर जैसे चीन का जलवा बनाने वाला नहीं होगा? कुछ जानकारों का मानना है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग बहुत जल्दी अमेरिकी दबदबे की जगह चाइनीज दबदबे में दुनिया को नचाते हुए होंगे। अपनी सोच अलग है। इसलिए कि चीन जिस अहंकार और घमंड में नंबर एक वैश्विक महाशक्ति है उसकी बुनियाद पश्चिम की पूंजी, तकनीक और बाजार है। चीन नकल कर सकता है, अनुशासित लोगों से मजूदरी करा सकता है, व्यापार-कमाई से वैभव बना सकता है लेकिन वह बुद्धि, अनुसंधान-ज्ञान-विज्ञान नहीं बना सकता है, जिसकी खदान अमेरिका-यूरोपीय सभ्यताएं हैं। इसलिए अल्पकालिक तौर पर भले वह रूतबा बनाता जाए, लेकिन ज्यों-ज्यों वह पश्चिमी विश्वास गंवाएगा अपने आप कमजोर होता जाएगा।
मगर गंवाना सभी को है। सन् बाईस दुनिया को बहुत बरबाद और बदहाल करने वाला है।

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